कार्बनिक कृषि (Organic Agriculture): जैविक कृषि ने भारत को सदियों से बढ़ाया है और यह फिर से भारत में एक बढ़ता हुआ क्षेत्र है। जैविक उत्पादन सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग के बिना स्वच्छ और हरे रंग के उत्पादन के तरीके प्रदान करता है और यह बाजार में प्रीमियम मूल्य प्राप्त करता है। भारत में 6,50,000 जैविक उत्पादक हैं, जो कि किसी भी अन्य देश में अधिक है। भारत के पास 4 मिलियन हेक्टेयर भूमि भी जैविक वाइल्डकल्चर के रूप में प्रमाणित है, जो दुनिया में तीसरे (फिनलैंड और ज़ाम्बिया के बाद) है।
कार्बनिक खेती एक वैकल्पिक कृषि प्रणाली है जो 20 वीं शताब्दी के आरंभ में तेजी से बदलती कृषि पद्धतियों की प्रतिक्रिया में उत्पन्न हुई थी। कार्बनिक खेती आज विभिन्न कार्बनिक कृषि संगठनों द्वारा विकसित की जा रही है। यह कार्बनिक उत्पत्ति के उर्वरकों पर निर्भर करता है जैसे कंपोस्ट खाद, हरी खाद, और हड्डी भोजन और फसल रोटेशन और साथी रोपण जैसी तकनीकों पर जोर देता है। जैविक कीट नियंत्रण, मिश्रित फसल और कीट शिकारी को बढ़ावा देने को प्रोत्साहित किया जाता है। सामान्य रूप से, कार्बनिक मानकों को सिंथेटिक पदार्थों को प्रतिबंधित या सख्ती से सीमित करते समय स्वाभाविक रूप से होने वाले पदार्थों के उपयोग की अनुमति देने के लिए डिज़ाइन किया गया है।
क्या है जैविक खेती या कार्बनिक कृषि?
जैविक खेती (Organic farming) कृषि की वह विधि है जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है। सन् 1990 के बाद से विश्व में जैविक उत्पादों का बाजार काफ़ी बढ़ा है।
विश्व में बढ़ती हुई जनसंख्या और कार्बनिक कृषि
संपूर्ण विश्व में बढ़ती हुई जनसंख्या एक गंभीर समस्या है, बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का उपयोग पारिस्थितिकी तंत्र (Ecology System -प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान के चक्र) प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती है।
प्राचीन काल और आधुनिक काल की कृषि
प्राचीन काल में मानव स्वास्थ्य के अनुकुल तथा प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप खेती की जाती थी, जिससे जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान का चक्र (पारिस्थितिकी तंत्र) निरन्तर चलता रहा था, जिसके फलस्वरूप जल, भूमि, वायु तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता था।
भारत वर्ष में प्राचीन काल से कृषि के साथ-साथ गौ पालन किया जाता था, जिसके प्रमाण हमारे ग्रांथों में प्रभु कृष्ण और बलराम हैं जिन्हें हम गोपाल एवं हलधर के नाम से संबोधित करते हैं अर्थात कृषि एवं गोपालन संयुक्त रूप से अत्याधिक लाभदायी था, जोकि प्राणी मात्र व वातावरण के लिए अत्यन्त उपयोगी था।
परन्तु बदलते परिवेश में गोपालन धीरे-धीरे कम हो गया तथा कृषि में तरह-तरह की रसायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है जिसके फलस्वरूप जैविक और अजैविक पदार्थो के चक्र का संतुलन बिगड़ता जा रहा है और वातावरण प्रदूषित होकर, मानव जाति के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है।
अब हम रसायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों के उपयोग के स्थान पर, जैविक खादों एवं दवाईयों का उपयोग कर, अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं जिससे भूमि, जल एवं वातावरण शुद्ध रहेगा और मनुष्य एवं प्रत्येक जीवधारी स्वस्थ रहेंगे।
रासायनिक उर्वरको एवं कीटनाशक का असर
भारत वर्ष में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती है। हरित क्रांति के समय से बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए एवं आय की दृष्टि से उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है अधिक उत्पादन के लिये खेती में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरको एवं कीटनाशक का उपयोग करना पड़ता है जिससे सीमान्य व छोटे कृषक के पास कम जोत में अत्यधिक लागत लग रही है और जल, भूमि, वायु और वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है साथ ही खाद्य पदार्थ भी जहरीले हो रहे हैं।
इसलिए इस प्रकार की उपरोक्त सभी समस्याओं से निपटने के लिये गत वर्षों से निरन्तर टिकाऊ खेती के सिद्धान्त पर खेती करने की सिफारिश की गई, जिसे प्रदेश के कृषि विभाग ने इस विशेष प्रकार की खेती को अपनाने के लिए, बढ़ावा दिया जिसे हम जैविक खेती के नाम से जानते है। भारत सरकार भी इस खेती को अपनाने के लिए प्रचार-प्रसार कर रही है।
जैविक खेती या कार्बनिक कृषि का आरंभ
म.प्र. में सर्वप्रथम 2001-02 में जैविक खेती का अन्दोलन चलाकर प्रत्येक जिले के प्रत्येक विकास खण्ड के एक गांव में जैविक खेती प्रारम्भ कि गई और इन गांवों को जैविक गांव का नाम दिया गया। इस प्रकार प्रथम वर्ष में कुल 313 ग्रामों में जैविक खेती की शुरूआत हुई। इसके बाद 2002-03 में दि्वतीय वर्ष में प्रत्येक जिले के प्रत्येक विकासखण्ड के दो-दो गांव, वर्ष 2003-04 में 2-2 गांव अर्थात 1565 ग्रामों में जैविक खेती की गई।
वर्ष 2006-07 में पुन: प्रत्येक विकासखण्ड में 5-5 गांव चयन किये गये। इस प्रकार प्रदेश के 3130 ग्रामों जैविक खेती का कार्यक्रम लिया जा रहा है। मई 2002 में राष्ट्रीय स्तर का कृषि विभाग के तत्वाधान में भोपाल में जैविक खेती पर सेमीनार आयोजित किया गया जिसमें राष्ट्रीय विशेषज्ञों एवं जैविक खेती करने वाले अनुभवी कृषकों द्वारा भाग लिया गया जिसमें जैविक खेती अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया गया। प्रदेश के प्रत्येक जिले में जैविक खेती के प्रचार-प्रसार हेतु चलित झांकी, पोस्टर्स, बेनर्स, साहित्य, एकल नाटक, कठपुतली प्रदशन जैविक हाट एवं विशेषज्ञों द्वारा जैविक खेती पर उद्बोधन आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार किया जाकर कृषकों में जन जाग्रति फैलाई जा रही है।
जैविक खेती से मानव स्वास्थ्य का बहुत गहरा सम्बन्ध है। इस पद्धति से खेती करने में शरिर तुलनात्मक रूपसे अधिक स्वास्थ्य रहता है। औसत आयु भी बढती है। हमारे आने बाले पीढ़ी भी अधिक स्वास्थ्य रहेंगे। कीटनाशक और खाद का प्रयोग खेती में करने से फसल जहरीला होता। जैविक खेती से फसल स्वास्थ्य और जल्दी खारब नहीं होता है।
जैविक खेती से होने वाले लाभ
1. कृषकों की दृष्टि से लाभ
- भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि हो जाती है।
- सिंचाई अंतराल में वृद्धि होती है।
- रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से लागत में कमी आती है।
- फसलों की उत्पादकता में वृद्धि।
- बाज़ार में जैविक उत्पादों की मांग बढ़ने से किसानों की आय में भी वृद्धि होती है।
2. मिट्टी की दृष्टि से
- जैविक खाद के उपयोग करने से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है।
- भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ती हैं।
- भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम होगा।
3. पर्यावरण की दृष्टि से
- भूमि के जल स्तर में वृद्धि होती है।
- मिट्टी, खाद्य पदार्थ और जमीन में पानी के माध्यम से होने वाले प्रदूषण में कमी आती है।
- कचरे का उपयोग, खाद बनाने में, होने से बीमारियों में कमी आती है।
- फसल उत्पादन की लागत में कमी एवं आय में वृद्धि
- अंतरराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद की गुणवत्ता का खरा उतरना।
जैविक खेती, की विधि रासायनिक खेती की विधि की तुलना में बराबर या अधिक उत्पादन देती है अर्थात जैविक खेती मृदा की उर्वरता एवं कृषकों की उत्पादकता बढ़ाने में पूर्णत: सहायक है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक खेती की विधि और भी अधिक लाभदायक है। जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती ही है इसके साथ ही कृषक भाइयों को आय अधिक प्राप्त होती है तथा अंतराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं। जिसके फलस्वरूप सामान्य उत्पादन की अपेक्षा में कृषक भाई अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
आधुनिक समय में निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या, पर्यावरण प्रदूषण, भूमि की उर्वरा शकि्त का संरक्षण एवं मानव स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती की राह अत्यन्त लाभदायक है। मानव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए नितान्त आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधन प्रदूषित न हों, शुद्ध वातावरण रहे एवं पौषि्टक आहार मिलता रहे, इसके लिये हमें जैविक खेती की कृषि पद्धतियाँ को अपनाना होगा जोकि हमारे नैसर्गिक संसाधनों एवं मानवीय पर्यावरण को प्रदूषित किये बगैर समस्त जनमानस को खाद्य सामग्री उपलब्ध करा सकेगी तथा हमें खुशहाल जीने की राह दिखा सकेगी।
जैविक खेती हेतु प्रमुख जैविक खाद एवं दवाईयाँ
1. जैविक खाद तैयार करने के कृषकों के अन्य अनुभव
- भभूत अम़तपानी
- अमृत संजीवनी
- मटका खाद
2. जैविक पद्धति द्वारा व्याधि नियंत्रण के कृषकों के अनुभव
- गौ-मूत्र
- नीम-पत्ती का घोल/निबोली/खली
- मट्ठा
- मिर्च/लहसुन
- लकड़ी की राख
- नीम व करंज खली
- फसलो का अवशेष
जैविक खेती कैसे करें?
How to Make Organic Farming?
जैविक खेती देशी खेती का आधुनिक तरीका है। जहां प्रकृति एवं पर्यावरण को संतुलित रखते हुए खेती की जाती है। इसमें रसायनिक खाद कीटनाशकों का उपयोग नहीं कर खेत में गोबर की खाद, कम्पोस्ट, जीवाणु खाद, फसल अवशेष, फसल चक और प्रकृति में उपलब्ध खनिज जैसे रॉक फास्फेट, जिप्सम आदि द्वारा पौधों को पोषक तत्व दिए जाते हैं। फसल को प्रकृति में उपलब्ध मित्र कीटों, जीवाणुओं और जैविक कीटनाशकों द्वारा हानिकारक कीटों तथा बीमारियों से बचाया जाता है।
जैविक खेती की आवश्यकता
आजादी के समय खाने के लिए अनाज विदेशों से लाया जाता था, खेती से बहुत कम पैदा होता था, किन्तु जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि होती गई, अनाज की कमी महसूस होने लगी। फिर हरित क्रान्ति का दौर आया इस दौर में 1966-67 से 1990-91 के बीच भारत में अन्न उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। अधिक अनाज उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंधाधुंध उर्वरकों, कीटनाशकों और रसायनों का प्रयोग किया जाने लगा, जिसके कारण भूमि की विषाक्तता भी बढ़ गई। मिट्टी से अनेक उपयोगी जीवाणु नष्ट हो गए और उर्वरा शक्ति भी कम हो गई।
आज संतुलित उर्वरकों की कमी के कारण उत्पादन स्थिर सा हो गया है, अब हरित क्रान्ति के प्रणेता भी स्वीकारने लगे हैं, कि इन रसायनों के अधिक मात्रा में प्रयोग से अनेक प्रकार की वातावरणीय समस्याएं और मानव तथा पशु स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं उत्पन्न होने लगी हैं एवं मिटटी की उर्वरा शक्ति में कमी होने लगी है, जिसके कारण मिटटी में पोषक तत्वों का असंतुलन हो गया हैं। मिटटी की घटती उर्वरकता के कारण उत्पादकता का स्तर बनाए रखने के लिए अधिक से अधिक जैविक खादों का प्रयोग आवश्यक हो गया है।
किसान महंगे उर्वरकों और कीटनाशकों को खरीदने से कर्ज में डूब रहे हैं, जिससे उसकी आर्थिक स्थिति में गिरावट आ रही है। मानव द्वारा रसायनयुक्त खाद्य पदार्थों के प्रयोग से शारीरिक विकलांगता एवं कैंसर जैसी भयंकर बीमारी होने लगी है। इस समस्या के निराकरण के लिए आधुनिक जैविक खेती अवधारणा एक उचित विकल्प के रूप में उभरकर सामने आई है। चूंकि जैविक कृषि में किसी भी प्रकार के रसायनिक आदानों का प्रयोग वर्जित है तथा फसल उत्पादन के लिए वांछित सभी संसाधन किसानों द्वारा ही जुटाने होते हैं।
इसलिए किसानों को संसाधनों के उत्पादन, उनका उचित प्रयोग और जैविक खेती प्रबंधन तकनीकी के बारे में प्रशिक्षित करना बहुत आवश्यक है। कुछ अन्य कारण इस प्रकार है, जैसे-
- कृषि उत्पादन में टिकाऊपन लाया जा सके।
- मिटटी की जैविक गुणवत्ता बनाए रखी जा सके।
- प्राकृतिक संसाधनों को बचाया जा सके।
- वातावरण प्रदूषण को रोका जा सके।
- मानव स्वास्थ्य की रक्षा की जा सके।
- उत्पादन लागत को कम किया जा सके।
पर्यावरण को बिना हानि पहुंचाए खेती और प्राकृतिक संसाधनों को भविष्य के लिए संचित रखते हुए उनका सफल उपयोग करके फसलों के उत्पादन में लगातार वृद्धि करना एवं मानव की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही टिकाऊ खेती कहलाता है।
जैविक खेती, टिकाऊ खेती का प्रमुख घटक है, जिसका मुख्य उद्देश्य रसायनों का कम से कम उपयोग और उनके स्थान पर जैविक उत्पादों का प्रयोग अधिक से अधिक हो जिससे पर्यावरण संतुलन बना रहे व भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़े। जैविक खेती का मुख्य घटक जैविक खाद, जैव उर्वरक है, जो कि रसायनिक खादों का एक उत्तम विकल्प है।
जैविक खेती के मुख्य घटक
जैविक खाद- जैविक खादों का तात्पर्य कार्बनिक पदार्थों से है, जो कि सड़ने पर कार्बनिक पदार्थ पैदा करते हैं। इसमें मुख्यतः खेती के अवशेष, पशुओं का मलमूत्र आदि होता है। इसमें फसलों के लिए सभी आवश्यक पोषक तत्व कम मात्रा में ही सही, उपस्थित होते है। इनमें मिटटी को सभी पोषक तत्व, जो फसलें अपनी बढ़वार के लिए ले लेती हैं, पुनः प्राप्त हो जाते है। आधुनिक कृषि में खेती की सघन पद्धतियाँ अपनाई जा रही हैं, जिनसे एक ही खेत में लगातार कई फसलें लेने से मिटटी में कार्बनिक पदार्थ की कमी हो जाती है।
जिससे मिटटी की संरचना और उर्वरा शक्ति पर बुरा असर पड़ता है। इसलिए मिटटी कार्बनिक पदार्थ को स्थिर रखने के लिए जैविक खादों का उपयोग अति आवश्यक है। साथ ही साथ जैविक खाद मिटटी की संरचना, वायु, तापमान, जलधारण क्षमता, जीवाणु संख्या तथा उनकी अभिक्रियाओं, बेस विनिमय क्षमता और भूमि कटाव को रोकने पर अच्छा प्रभाव डालती हैं।
हमारे देश में काफी समय से जैविक खादों का प्रयोग परम्परागत खेती में होता आया है। इनमें प्रमुख कम्पोस्ट खाद है, जो नगरों में कूड़े-करकट, दूसरी खेती अवशेष और गोबर से तैयार की जाती है। गोबर की खाद में अन्य कम्पोस्ट की अपेक्षा नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। जैविक खादों में लगभग सभी आवश्यक पोषक तत्वों की मात्रा पाई जाती है।
गोबर की खाद
भारत में प्रत्येक किसान खेती के साथ-साथ पशुपालन भी करता है। यदि किसान अपने उपलब्ध खेती अवशेषों और पशुओं के गोबर का प्रयोग खाद बनाने के लिए करें तो स्वयं ही उच्च गुणवता की खाद तैयार कर सकता है। अच्छी खाद बनाने के लिए 1 मीटर चौड़ा, 1 मीटर गहरा या आवश्यकतानुसार 5 से 10 मीटर लम्बाई का गड्ढा खोदकर उसमें उपलब्ध खेती अवशेष की एक परत पर गोबर तथा पशुमूत्र की एक पतली परत दर परत चढ़ा दें। उसे अच्छी तरह नम करके गड्ढे को उचित ढंग से ढककर मिट्टी और गोबर से बंद कर दें। इस प्रकार दो महीने में 3 पलटाई करने पर अच्छी गुणवता की खाद बनकर तैयार हो जायेगी।
वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद)
इसमें केंचुओं द्वारा गोबर और अन्य अवशेष को कम समय में उत्तम गुणवत्ता की जैविक खाद में बदल देते हैं। इस तरह की जैविक खाद से मिटटी जलधारण क्षमता में वृद्धि होती है। यह भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने, दीमक के प्रकोप को कम करने और पौधों को सन्तुलित मात्रा में आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करने के लिए उत्तम है।
हरी खाद
जैविक खेती हेतु वर्षाकाल में जल्दी बढ़ने वाली दलहनी फसलें जैसे ढेचा, सनई, लोबिया, ग्वार आदि उगाकर कच्ची अवस्था में लगभग 50 से 60 दिन बाद खेत में जुताई करके मिटटी में मिला दें। इस प्रकार हरी खाद भूमि सुधारने, मिटटी कटाव को कम करने, नाइट्रोजन स्थिरीकरण, मिटटी संरचना और जलधारण क्षमता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगी।
गोबर गैस स्लरी खाद
जैविक खेती में गोबर गैस संयन्त्र से निकली हुई स्लरी को सीधे ही तरल गोबर की खाद के रूप में खेत में दी जा सकती है। यह शीघ्र ही फसल को लाभ पहुंचाती है, गोबर की खाद मिटटी में मिलाने पर एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरने के बाद उसके पोषक तत्व फसल को उपलब्ध हो पाते हैं। जबकि स्लरी स्वयं ही सड़ने से इसमें विद्यमान सभी पोषक तत्व फसल या पौधों को शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं। एकत्रित स्लरी खाद का चूरा करके उसे सीधे ही कूड़ों में डाला जा सकता है। दो घन मीटर गैस संयत्र से प्रति वर्ष 10 टन बायौ गैस स्लरी का खाद प्राप्त होती है।
इसमें नाइट्रोजन 1. 5 से 2 प्रतिशत, फॉस्फोरस 1.0 प्रतिशत तथा पोटाश 1.0 प्रतिशत पाया जाता है। पतली स्लरी में 2 प्रतिशत नाइट्रोजन, अमोनिकल नाइट्रोजन के रूप में होता है। इसलिए इसे सिंचाई जल के साथ नालियों में दिया जाये तो इसका तत्काल प्रभाव फसल पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। सूखी स्लरी में से नाइट्रोजन का कुछ भाग हवा में उड़ जाता है, प्रति हैक्टेयर 5 टन स्लरी की मात्रा असिंचित खेती में तथा 10 टन स्लरी सिंचित खेती में डालना चाहिए।
जैव उर्वरक
जैव उर्वरक सूक्ष्म जीवों की जीवित कोशिकाओं को किसी वाहक केरियर में मिश्रित करके तैयार किए जाते हैं। इसमें राइजोबियम कल्चर सबसे अधिक उपयोग में आने वाला जैव उर्वरक है। इसके जीवाणु दलहनी फसलों की जड़ों में गांठे बनाकर उसमें रहते हुए वायुमंडलीय नत्रजन को भूमि में स्थिरीकरण कर फसल को उपलब्ध कराते हैं। प्रत्येक दलहनी फसल का अलग अलग कल्चर होता है। यह जीवाणु 50 किलोगतं से 135 किलोग्राम नत्रजन प्रति हैक्टेयर मिटटी में स्थिरीकरण करते हैं। राइजोबिया की 750 ग्राम मात्रा 80 से 100 किलोग्राम बीज के लिए पर्याप्त होती है।
एजोटोबेक्टर, खाद्यान फसलों में नत्रजन स्थिरीकरण का कार्य करते हैं। खाद्यान फसलों तथा सब्जियों आदि में इसके उपयोग से 15 से 20 प्रतिशत अधिक पैदावार मिलती है। घोलक जीवाणु (पीएसबी) में सुक्ष्म जीवाणु होते हैं। इसके प्रयोग से भूमि में अघुलनशील स्फुर घुलनशील स्फुर में परिवर्तित हो जाता है और 15 से 25 प्रतिशत तक पैदावार में वृद्धि होती है।
जैविक खेती के फायदे
- इस से ना केवल भूमि की उर्वरक शक्ति बनी रहती है बल्कि उसमें वृद्धि भी होती है।
- इस पद्धति से पर्यावरण प्रदूषण रहित होता है।
- इसमें कम पानी की आवश्यकता होती है जैव खेती पानी का संरक्ष्ण करती है।
- इस खेती से भूमि की गुणवत्ता बनी रहती है और सुधार होता रहता है।
- यह किसान के पशुधन के लिए भी बहुत महत्व रखती है और अन्य जीवों के लिए भी।
- फसल अवशेषों को नष्ट करने की आवश्यकता नही होती है।
- उत्तम गुणवत्ता की पैदावार का होना।
- जैविक खाद्यान महंगे मूल्य पर बिकते है।
- कृषि के सहायक जीव न केवल सुरक्षित होंगे बल्कि उनमें बढ़ोतरी भी होगी।
- इसमें कम लागत आती है और मुनाफा ज्यादा होता है।
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