साख का सामन्य शब्दों में अर्थ है- ऋण, साख अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था में निवेश के लिये धन उपलब्ध होता है, जिससे उत्पादन में बढ़ोतरी होती है और अर्थव्य्वस्था में सुधार होता है।
ग्रामीण साख
ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश के लिये जो ऋण दिया जाता है उसे ग्रामीण साख कहा जाता है. ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि, पशुपालन, भूमि विकास, ग्रामोद्योग आदि गतिविधियों क लिये ऋण की आवश्य्कता होती है. पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण का एकमात्र स्रोत साहूकार थे, जो लागों को बहुत उच्च ब्याज दर पर उनकी ज़मीन जायदाद को गिरवी रखकर ऋण देते थे. अक्सर लोग उनकी उच्च ब्याज दर के कारण ऋण नही लौटा पाते थे और अपनी भूमि से भी हाथ धो बैठते थे. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद साहूकारों की लूट को रोकने के लिये अनेक कानून बनाये गये. इसके अतिरिक्त सरकार ने ग्रामीण साख उपलब्ध कराने के लिये अनेक सस्थागत प्रबंध भी किये. इनमे व्यावसायिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बेंक, सहकारी बैंक, आदि शामिल हैं।
साख प्रबंधन
न्याय पंचायत अथवा ग्रामसभा स्तर पर एक कृषि केंद्र होना चाहिए जहां ग्रामीण कृषि क्षेत्र से संबंधित सभी कर्मचारी आवासीय सुविधाओं के साथ कार्यालय में कार्य कर सकें। यहां एक सहकारी समिति भी होनी चाहिए अथवा कृषि सहकारी समिति का विक्रय केंद्र होना चाहिए जिस पर कृषि मानकों के अनुसार बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि की व्यवस्था कराई जाए, जो किसानों को ऋण के रूप में उपलब्ध हो।
साथ ही, ऐसे यंत्र/उपकरण जिनकी किसानों को थोड़े समय के लिए आवश्यकता पड़ती है, वह उपलब्ध रहने चाहिए और निर्धारित किराए पर उन्हें उपलब्ध कराया जाना चाहिए। जैसे- निकाई, निराई, गुड़ाई, बुवाई अथवा कीटनाशकों के छिड़काव से संबंधित यंत्र अथवा कीमती यंत्र जिन्हें किसान व्यक्तिगत आय से खरीदने में असमर्थ है, आदि संभव हैं तो ट्रैक्टर, थ्रेशर, कंबाइन हार्वेस्टर आदि की सुविधाएं भी किराए पर उपलब्ध होनी चाहिए ताकि लघु एवं सीमांत वर्ग के किसान बिना किसी बाधा के खेती कर सकें।
खेती में जो भी फसल बोई जाए, उस फसल को सहकारी समिति के माध्यम से बीमाकृत कराया जाए और सरकार की नीतियों में आवश्यकतानुसर परिवर्तन करके यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जिस किसान की फसल को जिस तरह से भी क्षति हुई जैसे अतिवृष्टि, सूखा, ओलावृष्टि, आग, चोरी, बाढ़ या कोई अन्य कारण हो तो उस व्यक्ति को उसका क्लेम तत्काल दिया जाना चाहिए और क्लेम की राशि उसको दिए गए ऋण में समायोजित हो जिससे कि किसान अपनी 6 माह से पालन-पोषण करके तैयार की गई फसल की बर्बादी से गरीबी की ओर जाने से बच सके। वर्तमान व्यवस्था में शायद न्याय पंचायत स्तर पर 50 प्रतिशत से अधिक क्षति होने पर उस न्याय पंचायत के किसान को बीमा का लाभ मिलता है।
यह नितांत ही अन्यायपूर्ण है। बीमा कराना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि बीमा कंपनी की यह समीक्षा भी होनी चाहिए कि क्षेत्र के कितने किसानों को इससे लाभ हुआ है अथवा क्लेम मिले हैं। अधिकांश बीमा कंपनी बीमा करने के बाद इसकी खबर नहीं लेती और यदि कोई किसान संपर्क भी करता है तो उसे कानूनी दांव-पेंच में फंसाकर परेशान कर देती हैं जिससे वह इसके लाभ से वंचित रह जाता है। कृषि उपज प्रबंधन के लिए बीमा अति महत्वपूर्ण और उपयोगी है जिससे किसानों को ऋणग्रस्तता से बचाया जा सकता है।
विचारणीय विषय यह है कि किसान की फसल छः माह में तैयार होती है और उस फसल को तैयार करने के लिए आज भी किसान नंगे पांव जाड़ा, गर्मी, बरसात में खुले आकाश के नीचे रात-दिन परिश्रम करके फसल तैयार कर लेता है। खेतों में रात-दिन कार्य करते समय दुर्भाग्यवश यदि कोई जानवर काट लेता है या कोई दुश्मन उसकी हत्या कर देता है तो ऐसी दशा में उसका कोई बीमा आदि नहीं होता। ऐसे में उनके बच्चे सड़क पर आ जाते हैं, दिन-रात एक करके देश की सूरत बदलने वाला किसान और उसका परिवार न केवल भूखा सोने को मजबूर होता है बल्कि सदैव के लिए निराश्रित हो जाता है। अतः फसल बीमा के अतिरिक्त कृषक बीमा भी कराया जाना चाहिए।
किसानों को ऋण दिए जाने की व्यवस्था और सुविधाओं को मजबूत तथा उदार बनाने की आवश्यकता है। समय-समय पर केंद्र और राज्य सरकारों ने किसानों को ऋणमुक्त कराने के लिए ऋण माफी की अनेक योजनाएं घोषित की हैं जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार करके निर्णय लिया गया होता तो किसानों की दुर्दशा शायद कम होती।
ऋण माफी से निश्चित रूप से उन किसानों को लाभ हुआ है जो कभी अच्छे ऋण भुगतानकर्ता थे ही नहीं और उनमें यह प्रवृत्ति विकसित हुई कि ऋण की अदायगी करने से कोई लाभ नहीं है। किसी न किसी समय जब सरकार माफ करेगी तो इसका लाभ हमको मिलेगा।
साथ ही, ऐसे किसान जो सदैव समय से ऋण अदायगी करते रहे हैं, वे इस ऋण माफी से स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे इससे धोखा खाए हैं। इसलिए उनमें भी यह आस्था विकसित हो रही है कि समय से कर्ज अदा करने से कोई लाभ नहीं है और जब बकायेदार सदस्यों का कुछ नहीं बिगड़ रहा तो हमारा क्या बिगड़ेगा।
किसान किसी न किसी रूप में लगभग सभी वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करके आज बकायेदार हैं और बकायेदारों को ऋण न देने की नीति के कारण वह अब इन वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने में असमर्थ हैं परंतु जब उसे अपने किसी अन्य कार्य, सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों के निवर्हन हेतु किसी न किसी रूप में धन की आवश्यकता होती है तब वह बाध्य होकर उसी साहूकार के पास ऋण प्राप्ति के लिए जाता है जिससे मुक्ति दिलाने के लिए स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री से लेकर अब तक सभी प्रयासरत् रहे।
ये साहूकार 2 वर्ष पूर्व 5 रुपये प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से ब्याज पर किसान को ऋण दे देते थे जिसकी कोई गारंटी नहीं होती है, और न ही कोई अभिलेख मांगे जाते हैं बल्कि उसकी चल-अचल संपत्ति और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए ऋण दिया जाता है।
विगत माह ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण के समय सामान्य व्यक्ति की हैसियत से वार्ता की गई तो स्थिति यह आई है कि अब साहूकार 8 रुपये से 10 रुपये तक प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से ब्याज ले रहे हैं जिससे किसान आकण्ठ ऋण में डूब रहे हैं।
इतनी भारी ब्याज की रकम अदा करने के बाद एक बार लिए गए ऋण का मूल धन अदा करना किसान के बस की बात नहीं होती। अतः वह लोक-लाज को बचाने के लिए आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में वित्तीय संस्थाओं से लिए गए ऋण तो प्रकाश में आते हैं किंतु साहूकार द्वारा दिया गया ऋण कहीं भी उजागर नहीं होता।
यह विडंबना ही है कि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। साथ ही, वातावरण में यह नकारात्मकता विकसित कर दी गयी है कि ऋण अदायगी से कोई लाभ नहीं है तथा सरकारों द्वारा विभिन्न प्रकार से ऋण की अदायगी पर रोक लगने से किसानों को नुकसान हुआ है।
इससे राष्ट्रीय स्तर पर साख व्यवस्था चरमरा गयी है। यह भी उल्लेखनीय है कि सुदूर ग्रामीण अंचलों में सहकारी समितियों की जो पकड़ आम आदमी तक है, वहां अन्य वित्तीय संस्थाओं की नहीं है। अनेक प्रयासों के बाद भी यह संस्थाएं वहां लघु एवं सीमांत कृषकों को छोटे ऋण देने से कतराती हैं।
स्थानीय स्तर पर सहकारी समितियों के माध्यम से वितरित ऋण एवं अन्य कृषि सामग्री सरकार के निर्देशों के अंतर्गत सस्ती दरों पर बांटी गयी अथवा हानि पर दिए गए ऋणों की वसूली पर भी रोक लगाई गई जिसके कारण सहकारी समितियों की वित्तीय दुर्दशा देखने को मिलती है और इससे धीरे-धीरे पूरा सहकारी ढांचा न केवल चरमरा गया बल्कि समाप्ति की ओर है।
ऐसी स्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों की साख व्यवस्था पर ध्यान न देने के कारण वहां की दरिद्रता और बढ़ती गई। यदि सहकारी समितियों को स्वतंत्र रूप से उनके वास्तविक सदस्यों के द्वारा संचालित किया जाए, जो समिति के कष्ट को अपना कष्ट समझें तो निश्चित रूप से वह न केवल कृषि क्षेत्र में चमत्कारी कार्य कर सकेंगे बल्कि प्रजातंत्र की प्रथम सीढ़ी एवं प्रथम पीढ़ी के लोगों की राजनैतिक जागरूकता के लिए एक स्तंभ सिद्ध हो सकते हैं।
किसान क्रेडिट कार्ड की जो व्यवस्था की गई है, वह अच्छी तो है परंतु उसका व्यावहारिक पक्ष देखा नहीं गया है। जैसे कोई सहकारी समिति अपने कार्य क्षेत्र से बाहर ऋण नहीं दे सकती और उस समिति से ही धन एवं कृषि उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है तब उसके किसान क्रेडिट कार्ड का कोई मतलब नहीं है। किसान के पास सहकारी समिति की पासबुक प्रारंभ से ही दी जाती है जिसमें उसका विवरण अंकित होता है। उसकी ऋण सीमा भी स्वीकृत की जाती है। उस ऋण सीमा के अंतर्गत वह नकद या वस्तु के रूप में ऋण प्राप्त कर सकता है।
साख व्यवस्था में भी किसान की आवश्यकताएं दो तरह की होती हैं- एक अल्पकालीन और दूसरी दीर्घकालीन। अल्पकालीन व्यवस्था के अंतर्गत सरकार का विशेष ध्यान रहता है परंतु दीर्घकालीन ऋणों में किसान की आवश्यकता पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। दीर्घकालीन ऋणों की ब्याज दरें अल्पकालीन ऋण की तुलना में अधिक हैं।
परियोजना आधारित ऋण वितरित किया जाता है। किसान की अन्य आवश्यकताओं के लिए ऋणों का कोई प्रावधान दीर्घकालीन व्यवस्था में नहीं है जिससे एक ही किसान को दोहरे मापदण्डों का सामना करना पड़ता है। इस व्यवस्था में बेहद सुधार की आवश्यकता है। परियोजना आधारित ऋण वितरण को समाप्त कर ऋण सीमा स्वीकृत करते हुए सस्ती ब्याज दरों पर ऋण तथा किसान क्रेडिट कार्ड उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
साख की उपलब्ता बढ़ाने के लिये कार्य
प्रथम पंचवर्षीय योजना प्रारंभ होने के समय लगभग 70 प्रतिशत ग्रामीण ऋण साहूकारों द्वारा दिये जाते थे। 1954 में पहला अखिल भारतीय ग्रामीण साख सर्वेक्षण किया गया। इसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों में साख की उपलब्ता बढ़ाने के लिये अनेक कार्य हुए
कृषि वित्त निगम (Agriculture Finance Corporation) वर्ष 1963 में गठित की गई।
- व्यावसायिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण 2 चरणों में वर्ष 1969 और 1980 में किया गया।
- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना 1975 में हुई।
- राष्ट्रीय कृषि विकास बैंक (NABARD) 1982 में बना।
- प्रायरिटी सेक्टर लैंडिंग में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान बना।
- सरकार और रिज़र्व बैंक के प्रयासों से तथा उपरोक्त सभी वित्तीय संस्थाओं के प्रयासों से कृषि, ग्रामोद्योग, ग्रामीण क्षेत्र की परियोजनाएं, ग्रामीण अधोसंरचना विकास, हरित क्रांति में कृषि साख आदि के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में साख का विकास होता रहा।
- वर्ष 1988 में नरसिंम्हरन समिति ने कहा कि बैंकों का संचालन व्यावसायिक तरीके से किया जाना चाहिये जिसमें लाभ कमाना मुख्य उद्देश्य है।
- इसके कारण अनेक बेंको की ग्रामीण शाखाएं बंद कर दी गईं।
- अनेक क्षेत्रीय ग्रामीण बेंकों का आपस में विलय कर दिया गया।
- इस समय ग्रामीण साख सिकुड़ने लगी और साहूकारों की बन आई।
- हाल ही में भारत सरकार ने जन धन योजना के रूप में वित्तीय समावेशन की बड़ी योजना प्रारंभ की है जिससे ग्रामीण साख में सुधार आने की आशा बंधी है।
ग्रामीण साख के मुख्य स्रोत
आज की स्थिति में ऐसा अनुमान है कि लगभग 63.56% ग्रामीण साख औपचारिक स्रोतों से और 36.4% अनौपचारिक स्रोतों से आती है। औपचारिक स्रोतों में 3.61% शासन से, 25.37% सहकारी संस्थाओं से और 71.02% बैंकों से है। अनौपचारिक स्रोतों में जंमीदार से 2.34%, साहूकारों से 64.05%, दुकानदारों से 4.93%, रिश्तेदारों और मित्रों से 24.03% तथ अन्य स्रोतों से 4.65% हैं। ग्रामीण साख के प्रमुख स्रोत हैं:
- सहकारी समितियां
- भूमि विकास बैंक
- व्यावसायिक बैंक
- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
साख परामर्श
साख परामर्श को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है, “यह ऐसा परामर्श है जो दिवालियापन से परे ऋण चुकाने की संभावना की तलाश करता है और ऋण लेने वालों को ऋण, बजट निर्माण तथा वित्तीय प्रबन्धन के बारे में शिक्षित करता है”।
इसके तीन उद्देश्य हैं-
- पहला, यह वर्तमान वित्तीय समस्याओं के समाधान के मार्ग की जांच करता है।
- दूसरा, ऋण के दुरुपयोग के बारे में लोगों को शिक्षित कर वित्तीय प्रबन्धन को समुन्नत करता है।
- तीसरा, यह आपदाग्रस्त लोगों को औपचारिक वित्तीय तंत्र तक पहुंच बनाने में मदद करता है।
साख परामर्श (जिसे युनाइटेड किंगडम में ऋण परामर्श अर्थात डेट काउंसलिंग कहते हैं) एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा ग्राहकों को ऐसे ऋणों से बचने के बारे में सलाह दी जाती है जिसे चुकाया नहीं जा सकता। साख परामर्श के अंतर्गत प्राय: ग्राहक के लिए ऋण प्रबन्धन योजना अर्थात डेट मैनेजमेंट प्लान (DMP) बनाने हेतु ऋण लेने वाले व्यक्तियों के साथ वार्ता शामिल है।
ऋणदाता के साथ ऋण चुकाने की योजना बनाकर डीएमपी (DMP) ऋण लेने वाले व्यक्ति को ऋण चुकाने में मदद करता है। साख परामर्श दाताओं द्वारा निर्मित डीएमपी(DMP)प्राय: ग्राहक को न्यूनीकृत भुगतान, शुल्क तथा ब्याज दर का प्रस्ताव देता है। ऋण प्रबन्धन योजनाओं में ग्राहकों को भुगतानों अथवा ब्याज में दी जाने वाली छूट का निर्धारण करने हेतु साख परामर्शदाता ऋणदाताओं द्वारा दी गई शर्तों का हवाला देते हैं।
इस प्रकार साख परामर्शदाता अपने ग्राहकों को उनकी समस्याओं का वास्तविक समाधान ढूंढने में मदद करता है और उन्हें ऋणों के संभव भुगतान के लिए राजी करता है। साख परामर्श को गोपनीय रखा जाता है। परामर्श सेवाएं प्राय: नि:शुल्क अथवा अत्यंत मामूली शुल्क पर दी जाती हैं ताकि पहले से ऋणग्रस्त ग्राहक पर अनुचित रूप से अतिरिक्त भार न पड़े।
वैश्विक परिदृश्य
विभिन्न देशों में साख परामर्श की अलग-अलग विधियां हैं। यद्यपि प्रथम विख्यात परामर्श एजेंसी सन् 1951 में संयुक्त राज्य में स्थापित की गई थी, यह अवधारणा तेजी से अन्य देशों द्वारा अपनाई जाने लगी और पिछले अनेक वर्षों के दौरान अनेक देशों ने साख परामर्श की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
वैश्विक परिदृश्य: मिश्रित अनुभव
ऐसे कई तरीके हैं, जिनके जरिए विभिन्न देशों में साख परामर्श संपन्न किए जाते हैं। पहली ज्ञात साख परामर्श एजेंसी की स्थापना वर्ष 1951 में, अमेरिका में की गई, जब साख देने वालों ने नेशनल फाउंडेशन फॉर क्रेडिट काउंसेलिंग (एनएफसीसी) का गठन किया था। उनका उद्देश्य था वित्तीय शिक्षा को बढ़ावा देना तथा उपभोक्ताओं को दिवालिया होने से बचाना। वर्ष 1968 में हाउसिंग एंड अरबन डेवलपमेंट अधिनियम के पास होने के बाद साख परामर्श को पहचान मिली। इस अधिनियम के तहत अमेरिका के हाउसिंग तथा अरबन डेवेलपमेंट को पब्लिक तथा प्राइवेट संगठनों को बंधक लगाने वाले को परामर्श देने के लिए अधिकृत किया गया।
इसके परिणामस्वरूप विकसित सेवाओं तथा आधारभूत ढांचों के कारण साख परामर्श उद्योग का विकास हुआ।
वर्ष 1993 में असोसिएशन ऑफ इंडिपेंडेंट कंज्यूमर साख काउंसेलिंग एजेंसीज (AICCCA) की अमेरिका में स्थापना की गई, जिसमें पूरे उद्योग भर में उत्कृष्ट तथा नैतिक आचार की जरूरत को रेखांकित किया गया। इसने औपचारिक रूप से एनफीसीसी (NFCC) की प्रतियोगिता को संगठित किया। असोसिएशन ऑफ इंडिपेंडेंट कंज्यूमर साख काउंसेलिंग एजेंसीज (AICCCA) की स्थापना परामर्शदाताओं के ऐसे समूहों द्वारा की गई, जो ऋण प्रबंधन कार्यक्रम के लिए टेलीफोन के जरिए सेवा की आपूर्ति देने के समर्थक थे। शुरुआत में एनफीसीसी (NFCC) टेलीफोन बिजनेस मॉडल के खिलाफ थे, प्रमुख रूप से वे आमने-सामने परामर्श के पक्ष में थे। अंततः सभी संगठनों ने फोन तथा आमने-सामने विधि के परामर्श को व्यवहार में लाया, जिसमें कुछ एजेंसियां भी थीं, जिन्होंने मास मीडिया विज्ञापन द्वारा बड़ी संख्या में इनबाउंड कॉल सेंटरों का उपयोग किया।
बैंकरप्सी एब्यूज प्रिवेंशन एंड कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट 2005 ने साख परामर्श को अमेरिका में दिवालियापन के लिए कंज्यूमर डेटर फाइलिंग के लिए जरूरी बना दिया। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए दिवालियापन फाइल करने के 180 दिन पहले उधारदाता (डेटर) को किसी स्वीकृत गैर-लाभ बजट तथा साख काउंसलिंग एजेंसी के साथ एक कार्यक्रम को पूरा करना आवश्यक बनाया गया। ऐसे कार्यक्रमों में फोन या इंटरनेट पर किया जाने वाला एक परामर्श सत्र शामिल हो सकता है, हालांकि यह यहीं तक सीमित नहीं हो सकता।
जल्द ही इस संकल्पना को अन्य देशों में भी चलाया जाने लगा, तथा पिछ्ले कुछ वर्षों में कई सारे देशों ने साख परामर्श की दिशा में अहम कदम उठाए। वर्ष 1993 में ब्रिटेन में स्थापित कंज्यूमर साख काउंसलिंग सर्विस (CCCS) उपभोक्ताओं को बजट बनाने तथा धन के बेहतर प्रबंधन के लिए मदद करता है। कंज्यूमर साख काउंसलिंग सर्विस के लिए कोष व्यवसाय समुदायों से आता है। साथ ही एक राष्ट्रीय ऋण रेखा भी है, जिसके जरिए बैंक का ग्राहक निःशुल्क वित्तीय परामर्श प्राप्त कर सकता है। वास्तव में ब्रिटेन का बैंकिंग कोड इसकी व्यवस्था करता है कि सदस्य बैंक ग्राहकों के साथ उन समस्याओं पर विचार कर समाधान की एक योजना तैयार करेंगे।
वर्ष 2000 में कनाडा में एक गैर-लाभ वाले परामर्श संगठन की स्थापना की गई। टर्म्ड क्रेडिट काउंसलिंग कनाडा (CCC) का उद्देश्य अपने सभी नागरिकों के लिए गैर-लाभ वाले साख परामर्श की गुणवत्ता तथा उपलब्धता को बढ़ावा देना है।
द बैंक नेगारा मलेशिया ने क्रेडिट काउंसलिंग एंड डेट प्रबंधन एजेंसी (CCDMA) की स्थापना की है, जिसका उद्देश्य है व्यक्तियों को साख परामर्श तथा ऋण पुनर्संरचना की सलाह देना। क्रेडिट काउंसलिंग एंड डेट प्रबंधन एजेंसी(CCDMA) यह सुनिश्चित करता है कि घरेलू क्षेत्र को मौजूदा तथा संभावित उधारकर्ताओं हेतु उनके उधार पर सलाह तथा सहायता के लिए एक मार्ग प्रशस्त कर लोचदार रखा जाए, वहीं एक कुशल बैंकिंग प्रणाली का निर्माण किया जाए जिसमें उधारों को चुकाने का तरीका विकसित किया जाए तथा कमजोर ऋण प्रबंधन में उधार के न चुकाए जाने की घटना को कम से कम किया जाए। क्रेडिट काउंसलिंग एंड डेट प्रबंधन एजेंसी(CCDMA) मुफ्त साख परामर्श प्रदान करता है, साथ ही यह उपभोक्ताओं को ऋण शिक्षा तथा उसके निपटान की सेवाएं प्रदान करता है। क्रेडिट काउंसलिंग एंड डेट प्रबंधन एजेंसी(CCDMA) उपभोक्ताओं को उधारदाता तथा उधारकर्ता के बीच के समझौते के आधार पर अदालती कार्रवाई के बगैर उनके ऋण का सक्रिय रूप से प्रबंधन करता है।
भारत में साख परामर्श की आवश्यकता
हाल के दिनों में भूमंडलीकरण, उन्नत तकनीक एवं बाजारोन्मुखता में भारी वृद्धि तथा वित्तीय नवाचार के कारण वित्तीय परिदृश्य में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है। हाल के वर्षों में व्यावसायिक बैंकिंग क्षेत्रक में खुदरा ऋणों का चलन काफी बढ़ गया है। क्योंकि व्यावसायिक बैंकों का ध्यान अब पारम्परिक जरूरत- आधारित ऋण से हटकर विस्तृत आधार वाले पोर्टफोलियो पर गया है, खुदरा ऋण अब बैंकों का मुख्य व्यवसाय बन गया है। उपभोक्ता ऋणों, गृह ऋणों, क्रेडिट कार्ड तथा व्यक्तिगत ऋणों में तेजी से वृद्धि हुई है। वर्ष 2001 में शहरी एवं महानगरीय क्षेत्रों के अंतर्गत हाउसिंग, कंज्यूमर ड्युरेबल्स तथा व्यक्तिगत ऋणों (क्रेडिट कार्ड सहित) के अंतर्गत 87.1 लाख खाते थे जिनके तहत 42 हजार 700 करोड- रु. थे, वर्ष 2006 में बढ़कर 255 लाख खाते तथा कुल 2 लाख 58 हजार करोड़ रु. हो गए थे।
शहरी क्षेत्रों में बढ़ते हुए मध्यवर्ग और लोगों की बदलती जीवनशैली के कारण अधिक से अधिक लोग संपत्ति निर्माण के अतिरिक्त अपनी उपभोक्ता आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण लेने लगे हैं। कुछ स्थितियों में भारी गड़बड़ियां पैदा होती हैं और ऋण के चुकता न होने की स्थिति बन जाती है। महंगी आपात चिकित्सा, नौकरी छूट जाने, मुश्किल ब्याज दरों इत्यादि के कारण कुछ स्थितियों में ऋण का बोझ बढ़ जाने से उपलब्ध आय सीमा के अंतर्गत ऋण चुका पाना मुश्किल हो जाता है। व्यक्तिगत ऋणों के जबरदस्त विपणन एवं ऋण लेने वाले कमजोर वर्ग के हाथ में क्रेडिट कार्ड आने से ऋणग्रस्तता एवं एनपीए(NPAs) में वृद्धि हुई है।
ग्रामीण क्षेत्रों में, खासकर वर्षा आधारित कृषि वाले क्षेत्रों में मानसून की अनियमितता और जोखिम कम करने की उचित नीतियों के अभाव में वर्षा आधारित कृषक वर्ग को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि शहरी एवं ग्रामीण जनसंख्या में साक्षरता स्तर में भारी अंतर के साथ वर्ष 2001 में देश भर की औसत साक्षरता दर केवल 65.4% थी।
बड़ी तेजी से ऋण दिए जाने के कारण परिवारों पर ऋणग्रस्तता का बोझ बढ़ा है। किसानों के मामले में किसानों पर किए गए NSSO के परिस्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण अर्थात सिचुएशन असेसमेंट सर्वे (SAS) के अनुसार वर्ष 2003 में गणना किए गए 893.3 लाख किसान परिवारों में से 434.2 लाख (48.6%) किसान परिवार ऋण के बोझ तले दबे थे। औसत बकाया ऋण प्रति किसान परिवार 12,585 रु. था। राज्यवार विश्लेषण से स्पष्ट हुआ कि वर्ष 2003 में ऋणग्रस्तता की घटना ऐसे राज्यों में अधिक हुई जहां अधिक लागत वाली खेती की जाती थी अथवा जहां की कृषि विविधतापूर्ण थी।
2003 में किसान परिवारों के कुल ऋण की राशि 1.12 लाख करोड़ रु. थी; जिसमें से 65,000 करोड़ रु. संस्थागत स्रोतों से एवं 48,000 करोड़ रु. गैर-संस्थागत एजेंसियों से दिए गए थे। व्यक्तिगत महाजनों द्वारा 29,000 करोड़ रु. तथा व्यापारियों द्वारा 6,000 करोड़ रु, दिए गए। गैर-संस्थागत स्रोतों से प्राप्त लगभग 18,000 करोड़ रु. के ऋण का एक बड़ा भाग ऐसे महाजनों द्वारा दिया गया था जिन्होंने 30% से अधिक ब्याज दर रखी थी। जून 2004 के बाद से, यद्यपि कृषि क्षेत्र को बैंकिंग व्यवस्था से मिलने वाले ऋणों में अच्छी खासी वृद्धि हुई है, अनौपचारिक वित्त आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
कृषि ऋणग्रस्तता पर विशेषज्ञ समूह (अध्यक्ष:आर. राधाकृष्णन) की रिपोर्ट के अनुसार किसानों की ऋणग्रस्तता की स्थिति में ऋणग्रस्तता को आपदाकारी घटना के रूप में देखा गया है। ऐसा वास्तव में तब होता है जब लिए गए ऋण को उत्पादक कार्यों में इस्तेमाल न किया जाए। ऋण लेना उस स्थिति में भी आपदाकारी घटना बन जाती है जब ऋण लेने वाले किसान की फसल प्राकृतिक आपदाओं, कीटों, नकली बीजों, गैर-बुद्धिमत्तापूर्ण निवेशों अथवा अन्य अप्रत्याशित कारणों से बरबाद हो जाए या उच्च उत्पादन लागत, पिछड़ी हुई तकनीक के कारण उपज अलाभकारी हो जाए तथा बाजार में मिलने वाला मूल्य इतना अपर्याप्त हो कि किसान के लिए ऋण की मूल राशि और उसका ब्याज चुका पाना असंभव हो जाए। ब्याज की देनदारी एक बहुत बड़ा बोझ बन जाता है यदि कर्ज गैर-संस्थागत स्रोतों, जैसे-महाजनों से ऊंची दर पर लिया गया हो।
रिजर्व बैंक द्वारा, वित्त व्यवस्था की बेहतरी सुनिश्चित करने तथा लोगों को औपचारिक विनियमित वित्तीय व्यवस्था के अंतर्गत लाने के लिए चालू आधार पर, विनियामक एवं पर्यवेक्षणकारी उपाय किए जा रहे हैं। यद्यपि वित्तीय व्यवस्था का स्थायित्व बनाए रखने के लिए भी पर्याप्त ग्राहक सुरक्षा और शिक्षा कार्य योजना की आवश्यकता होती है। ग्राहक सुरक्षा एवं शिक्षा के उपाय ग्राहकों को उनकी अपनी समृद्धि का उत्तरदायित्व वहन करने योग्य बनाता है। इस संदर्भ में वित्तीय साक्षरता एवं साख परामर्श अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
आपदाग्रस्त कर्जदारों को ऋण-बकाया की स्थिति से उबरने में सक्षम बनाने के लिए फॉलोअप सेवाओं को विकसित किए जाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। ऐसे में साख परामर्शदाता व्यवहार्य एवं कार्योन्मुख परामर्शी तथा कर्जदार एवं संबंधित बैंक के बीच अस्थाई मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। आमदनी बढ़ाने तथा ऋण चुकता करने की क्षमता विकसित करने के लिए उचित सलाह देकर साख परामर्श कर्जदार को अपने कर्ज के बोझ से छुटकारा पाने तथा बेहतर वित्त प्रबन्धन की दक्षता हासिल करने का अवसर प्रदान करता है। यह ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि वित्तीय उत्पाद एवं सेवाएं अन्य वस्तुओं/सेवाओं से बिलकुल भिन्न प्रकृति की होती है। खासतौर पर, ग्राहकों तथा वित्त सेवा प्रदाताओं के बीच सूचना तक पहुंच एवं मोल-तोल की क्षमता तक पहुंच बनाने में विषमता पाई जाती है।
अनेक स्थितियों में, खासकर अधिक कमजोर वर्गों में लोग बैंकों को अपनी वित्तीय स्थिति के बारे में साफ-साफ बताकर कोई समझौता कर पाने में सक्षम नहीं होते। इसलिए, यह खुद बैंकों के हित में होगा कि वे उचित वित्तीय शिक्षा एवं वित्तीय परामर्श के द्वारा अपने कर्जदारों की मदद करें।
लोगों के ऋण-बोझ के समाधान के लिए बैंकों द्वारा ऋण दिए जाने के संदर्भ में कॉर्पोरेट डेब्ट रीस्ट्रक्चरिंग (CDR) एवं बड़े कॉर्पोरेटों के लिए DFIs के रूप में व्यवस्था पहले से मौजूद है। कुछ इसी तरह की व्यवस्था माइक्रो (सूक्ष्म), लघु एवं मध्यम उद्यमों के लिए भी बनाई गई है। ऋण लेने वाले व्यक्ति एवं बैंकों के बीच सक्रिय परामर्श तत्काल उपलब्ध नहीं है। ऋण परामर्श व्यक्तिगत कर्जदारों के लिए है, संस्थागत कर्जदारों के लिए नहीं।
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा उठाए गए कदम
जैसा कि ऊपर बताया गया है, श्री सी. पी. स्वर्णकार एवं श्री एस. एस. जोल की अध्यक्षता वाले कार्यसमूह, जिनका गठन रिजर्व बैंक द्वारा किया गया था, ने साख एवं तकनीकी परामर्श की आवश्यकता पर बल दिया है ताकि साख की व्यवहार्यता, खासकर अपेक्षाकृत अल्पविकसित क्षेत्रों में, बढ़ाई जा सके। दोनों समूहों द्वारा की गई अनुशंसाओं के प्रकाश में और विभिन्न वार्षिक नीति विवरण के रूप में राज्य/केन्द्रशासित प्रदेश स्तर की बैंकर्स समितियों की संयोजक बैंकों को यह सुझाव दिया गया कि वे पायलट आधार पर वित्तीय साक्षरता एवं साख परामर्श केन्द्र अपने अधिकार क्षेत्र में पड़ने वाले राज्य/केन्द्रशासित प्रदेश में स्थापित करें। आगे, प्राप्त अनुभवों के आधार पर संबंधित लीड बैंकों को अन्य जिलों में ऐसे केन्द्रों की स्थापना करने की सलाह दी गई।
कुछ बैंकों द्वारा उठाए गए कदम
देश में कुछ बैंकों ने पहले ही साख परामर्श केन्द्र खोलने की दिशा में कदम उठाए हैं। साख परामर्श पहल के अध्ययन हेतु रिजर्व बैंक द्वारा एक आंतरिक समूह का गठन किया गया है जिसने महाराष्ट्र राज्य में स्थापित कुछ परामर्श केन्द्रों अर्थात “ABHAY” परामर्श केन्द्र (बैंक ऑफ इंडिया द्वारा की गई पहल); “दिशा ट्रस्ट” (ICICI बैंक लिमिटेड की पहल) तथा ग्रामीण परामर्श केन्द्र (बैंक ऑफ बड़ौदा की पहल) का दौरा किया। आंतरिक समूह द्वारा निरीक्षण के नतीजे नीचे अनुच्छेद 29 से 33 तक सार रूप में दिए गए हैं।
इन केन्द्रों पर परामर्शदाता लोगों को आमने-सामने की प्रत्यक्ष सलाह देकर तो मदद करते ही हैं, इसके अतिरिक्त लोगों की सहायता उनके द्वारा टेलीफोन, ई-मेल अथवा पत्राचार के जरिए भी की जाती है। ऐसे ग्राहक जिन्हें अनेक क्रेडिट कार्डों, व्यक्तिगत ऋणों, गृह ऋणों एवं सोसाइटियों के ऋणों के कारण समस्याएं आ रही हैं, वे परामर्श एवं मार्ग निर्देशन हेतु परामर्श केन्द्रों से संपर्क करते हैं। परामर्शदाता अपने ग्राहकों का मार्गदर्शन करते हैं तथा उन्हें संबद्ध बैंकों से अपने ऋणों के रीशिड्युलिंग/रीस्ट्रक्चरिंग करवाने हेतु मदद करते हैं।
इन केन्द्रों की कुछ समान विशेषताएं इस प्रकार हैं:
- परामर्श केन्द्रों को फंड की प्राप्ति बैंकों द्वारा बनाए गए ट्रस्टों के जरिए अथवा स्वयं बैंकों के जरिए होती है।
- केन्द्रों पर कार्यरत परामर्शदाता बैंक के अवकाश प्राप्त अथवा कार्यरत कर्मचारी होते हैं।
- परामर्श नि:शुल्क दिया जाता है।
- वर्तमान में अधिकतर केन्द्रों पर दिए जाने वाले परामर्श, मुख्य रूप से, संकट वाली परिस्थिति उत्पन्न हो जाने पर दी जाने वाली उपचारात्मक प्रकृति की सलाह होते हैं।
इन परामर्श केन्द्रों की, निरीक्षण के दौरान पाई गई कुछ खास विशेषताएं:
- आधुनिक कृषि विधियों, सहकारी कृषि, विपणन रणनीति इत्यादि पर किसानों को सलाह देने हेतु विशेषज्ञों की व्यवस्था।
- क्रेडिट कार्ड, व्यक्तिगत ऋणों, गृह ऋणों एवं व्यवसाय के असफल हो जाने की स्थिति में ऋण नहीं चुका पाने की स्थिति के संदर्भ में शहरी ग्राहकों की साख संबंधी समस्याओं पर ध्यान दिया जाना।
- बैंक के विभिन्न उत्पादों एवं सेवाओं के लिए ग्राहकों में जागरूकता लाने हेतु कृषि अधिकारियों की नियुक्ति।
कुछ परामर्श केन्द्रों द्वारा बचत एवं क्रेडिट कार्ड की अवधारणा, न्यूनतम शुल्कों का प्रभाव इत्यादि से लोगों को परिचित कराने हेतु उन्हें शिक्षित करने के लिए प्रशिक्षण एवं जागरूकता कैम्पों का आयोजन किया जाता है। क्योंकि ये परामर्श केन्द्र मुख्य रूप से बैंकों के परिसर में स्थापित होते हैं, मुख्य व्यय परामर्शदाताओं को मानदेय के भुगतान के लिए किए जाते हैं; ये मानदेय प्रति माह 12,000 रु. से लेकर 30,000 रु. तक होते हैं।
यद्यपि लोगों में बचत, योजना व्यय एवं विभिन्न बैंकिंग सुविधाओं के संदर्भ में जागरूकता जगाने हेतु प्रशिक्षण केन्द्र चलाने की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं, इन प्रयासों को लोकप्रिय बनाने हेतु अभी काफी कुछ किए जाने की आवश्यकता है।
साख परामर्श केन्द्रों की स्थापना से जुड़े मुद्दे
भारत में साख परामर्श केन्द्रों की स्थापना से संबंधित कुछ मुद्दे इस प्रकार है:
वर्तमान में, क्योंकि साख परामर्श हेतु किए जाने वाले प्रयास बैंकों द्वारा किए जाने वाले व्यक्तिगत प्रयास हैं, जिन्होंने परामर्श केन्द्रों की स्थापना उनके द्वारा पूर्ण वित्त पोषित ट्रस्टों के रूप में की है, यह आशंका जताई जाती है कि कहीं इन केन्द्रों को संबंधित बैंकों के ऋण वसूली केन्द्रों के रूप में न देखा जाने लगे।
अत:, हालांकि इस बारे में दलील दी जा सकती है कि बैंक के व्यवसाय की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए साख परामर्श केन्द्रों के लिए बैंक उपयुक्त स्थान है, लेकिन बैंक तथा इसके द्वारा स्थापित परामर्श केन्द्रों के मध्य एक उपयुक्त “फायरवॉल” का होना आवश्यक है।
- आपदाग्रस्त कर्जदारों के लिए समाधान प्रस्तुत करने के अपने प्रयासों में परामर्श केन्द्रों के समक्ष आने वाली एक बड़ी बाधा है- संबद्ध मामले में अधिकारिता नहीं होने के कारण इन केन्द्रों द्वारा बैंकों को की जाने वाली अनुशंसाओं के साथ जुड़े विश्वास की कमी।
- अत: आवश्यकता है साख परामर्श केन्द्रों के हाथ में अधिकारिता दिए जाने की, ताकि ग्राहकों की ओर से बैंकों के साथ संपर्क कर उनसे प्रभावी वार्ता की जा सके।
- क्योंकि सेवा की गुणवत्ता एक महत्वपूर्ण तथ्य है, यह वांछनीय है कि साख परामर्शदाताओं एवं परामर्श एजेंसियों के लिए गुणवत्ता का उच्च मानदंड तय किया जाए।
- इसी प्रकार यह भी वांछनीय है कि परामर्शदाताओं के प्रत्यायन की एक व्यवस्था हो। परामर्श केन्द्रों की स्थापना के जोर पकड़ लेने पर साख परामर्शदाताओं के एक संगठन के निर्माण के बारे में सोचा जा सकता है।
- यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि परामर्श केन्द्रों की सफलता के लिए समर्पित एवं सुप्रशिक्षित अधिकारियों का चयन अत्यंत महत्वपूर्ण है।
कर्जदार की साख के बारे में अथवा उसके साख इतिहास के बारे में जानकारी का अपर्याप्त होना अथवा ऐसी जानकारी का बिल्कुल ही न होना चिंता का अन्य मुद्दा है जिस पर ध्यान देना आवश्यक है। क्योंकि ऐसे प्रयासों में जागरूकता की कमी एक समस्या है, यह आवश्यक है कि साख परामर्श की अवधारणा तथा ऐसी सेवाओं के नि:शुल्क उपलब्ध होने के बारे में व्यापक प्रचार किया जाए।